चीनी
भाई
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Author
: महादेवी
वर्मा |
Mahadevi Verma
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मुझे
चीनियों में पहचान कर स्मरण
रखने योग्य विभिन्नता कम
मिलती है। कुछ समतल मुख एक
ही साँचे में ढले से जान पड़ते
हैं और उनकी एकरसता दूर करने
वाली,
वस्त्र
पर पड़ी हुई सिकुड़न जैसी
नाक की गठन में भी विशेष अंतर
नहीं दिखाई देता। कुछ तिरछी
अधखुली और विरल भूरी वरूनियों वाली
आँखों की तरल रेखाकृति देख
कर भ्रांति होती है कि वे सब
एक नाप के अनुसार किसी तेज
धार से चीर कर बनाई गई हैं।
स्वाभाविक पीतवर्ण धूप
के चरणचिह्नों पर पड़े हुए
धूल के आवरण के कारण कुछ
ललछौंहे सूखे पत्ते की समानता
पर लेता है। आकार,
प्रकार,
वेशभूषा
सब मिल कर इन दूर देशियों को
यंत्रचालित पुतलों की भूमिका
दे देते हैं,
इसी
से अनेक बार देखने पर भी एक
फेरी वाले चीनी को दूसरे से
भिन्न कर के पहचानना कठिन
है।
पर
आज उन मुखों की एकरूप समष्टि
में मुझे एक मुख आर्द्र
नीलिमामयी आँखों के साथ
स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा
कहती है -
हम
कार्बन की कापियाँ नहीं हैं।
हमारी भी एक कथा है। यदि जीवन
की वर्णमाला के संबंध में
तुम्हारी आँखें निरक्षर
नहीं तो तुम पढ़ कर देखो
न!कई
वर्ष पहले की बात है मैं ताँगे
से उतर कर भीतर आ रही थी कि
भूरे कपड़े का गट्ठर बाएँ
कंधे के सहारे पीठ पर लटकाए
हुए और दाहिने हाथ में लोहे
का गज घुमाता हुआ चीनी फेरी
वाला फाटक के बाहर आता हुआ
दिखा। संभवत:
मेरे
घर को बंद पाकर वह लौटा जा
रहा था। 'कुछ
लेगा मेम साब'
- दुर्भाग्य
का मारा चीनी। उसे क्या पता
कि यह संबोधन मेरे मन में
रोष की सबसे तुंग तुरंग
उठा देता है। मइया,
माता,
जीजी,
दिदिया,
बिटिया
आदि न जाने कितने संबोधनों
से मेरा परिचय है और सब मुझे
प्रिय हैं,
पर
यह विजातीय संबोधन मानो सारा
परिचय छीन कर मुझे गाउन में
खड़ा कर देता है। इस संबोधन
के उपरांत मेरे पास से निराश
होकर न लौटना असंभव नहीं तो
कठिन अवश्य है।
मैने
अवज्ञा से उत्तर दिया-
'मैं
विदेशी -
फ़ॉरेन
- नहीं
ख़रीदती।'
'हम
फ़ॉरेन हैं?
हम
तो चाईना से आता है'
कहने
वाले के कंठ में सरल विस्मय
के साथ उपेक्षा की चोट से
उत्पन्न चोट भी थी। इस बार
रुककर,
उत्तर
देनेवाले को ठीक से देखने
की इच्छा हुई। धूल से मटमैले
सफ़ेद किरमिच के जूते में
छोटे पैर छिपाए,
पतलून
और पैजामे का सम्मिश्रित
परिणाम जैसा पैजामे और कुरते
तथा कोट की एकता के आधार पर
सिला कोट पहने,
उधड़े
हुए किनारों से पुरानेपन
की घोषणा करते हुए हैट से
आधा माथा ढके,
दाढ़ी-मूँछ
विहीन दुबली नाटी जो मूर्ति
खड़ी थी वह तो शाश्वत चीनी
है। उसे सबसे अलग कर के देखने
का प्रश्न जीवन में पहली बार
उठा।
क्रमश:
साभार
- महादेवी
प्रतिनिधि गद्य-रचनाएँ
(भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन)
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Saturday, 22 March 2014
चीनी भाई by महादेवी वर्मा
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